शिक्षा प्रणाली में सुधर पर निबंध – siksha pranali me nibandh ?
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हारून शेख़
शिक्षा प्रणाली में सुधार की सिफारिशें ( सुझाव)
शिक्षा ज्ञानार्जन का सर्वोत्कृष्ट साधन है, जो निर्बाध, अविराम, आजीवन चलने वाली प्रक्रिया है। शिक्षा मानव की समस्त शक्तियों का विकास कर उसे एक संपूर्ण मानव बनाती है। मानव के सर्वांगीण विकास हेतु ऐसी शिक्षा आवश्यक है जो उसकी बौद्धिक, मानसिक, शारीरिक, आत्मिक शक्तियों एवं प्रवृत्तियों का पूर्णरूपेण विकास करे। शिक्षा का उद्देश्य तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक वह व्यक्ति में सामाजिक, राजनैतिक, नैतिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं मानव मूल्यों का विकास न करे। वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली शिक्षा के इन महान उद्देश्यों को पूर्ण करने में व्यावहारिक रूप से असफल रही है।
आधुनिक भारतीय शिक्षा प्रणाली अंग्रेजों की देन है। ब्रिटिश शिक्षा शास्त्री लॉर्ड मैकाले ने आत्मविश्वास से कहा था”मुझे विश्वास है कि हमारी इस शिक्षा योजना से भारत में एक ऐसा शिक्षित वर्ग उभरेगा जो रक्त-वर्ण से तो पूर्णतया भारतीय होगा, पर रुचि, विचार और वाणी से अंग्रेज।” निश्चित ही आज की शिक्षा प्रणाली ने भारतीय मस्तिष्क को इतना संकुचित, स्वार्थी, एकाकी और अनुदार बना दिया है कि शिक्षा का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो गया है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में व्यावहारिक रूप से सुधार की बहुत आवश्यकता है। इसके लिए निम्न सुझाव दिए गए हैं जिन्हें लागू करके शिक्षा को व्यावहारिकता के निकट लाया जा सकेगा।
शिक्षा प्रणाली का सर्वप्रथम कर्तव्य है, ‘विद्यालय आने से छात्रों का भय दूर करना।’ यह तभी संभव है जब विद्यालयी शिक्षा बाबू बनाने का कारखाना नहीं अपितु ज्ञान का मंदिर बने। वहाँ का वातावरण सौहार्द्रपूर्ण, आत्मीयतापूर्ण, तनावमुक्त एवं खुशी भरा हो न कि कृत्रिम, बासी, उकताहटपूर्ण, एकरस एवं मशीनी हो। शिक्षा अधिकारियों एवं शिक्षाविदों को चाहिए कि विद्यालय का वातावरण स्वस्थ एवं उत्सुकता से पूर्ण बनाने के लिए कड़े कदम उठाए जाएं। यह तभी संभव है जब शिक्षा प्रदान करने वाले छात्रों के हितैषी हों। यह तभी संभव है जब शिक्षा प्रदान करना महान कार्य मानकर किया जाए न कि कर्त्तव्य भार की विवशता मान कर।
नित्य जीवन को सुचारू एवं सरल बनाने में सहायक पाठों का समावेश पाठ्यपुस्तकों में होना आवश्यक है। इसके अंतर्गत पाठ्यपुस्तकों में ऐसे विषय होने चाहिए जो शिक्षार्थियों को नित्य जीवन की समस्याएं हल करने संबंधी व्यावहारिक ज्ञान प्रदान करे तथा नैतिक, सामाजिक, चारित्रिक एवं व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने में सक्षम हो।
असीमित पाठ्यक्रम एवं प्रतियोगी परीक्षा प्रणाली ने छात्रों को पुस्तकों तक ही सीमित कर दिया है। शिक्षा का उद्देश्य केवल सर्वोत्तम अंक प्राप्त कर मनोवांछित जीवन लक्ष्य बनाना मात्र रह गया है। असीमित पाठ्यक्रम ने छात्रों में ‘रटन’ प्रवृत्ति का विकास किया है। जो जितना अधिक रटे, उतने अधिक अंक पाए। विषय को समझकर आत्मसात करने की क्षमता कुंठित हुई है। अब समय आ गया है छात्रों पर पाठों एवं विषयों का निरर्थक भार और न लादा जाए। इससे छात्र वर्ग में शिक्षा के प्रति अरुचि, निराशा, हताशा, विवशता की भावनाएं उत्पन्न होती हैं जिससे पढ़ना उनके लिए नौकरी प्राप्त करने की विवशता और समाज में शिक्षित कहलाने का प्रमाण मात्र रह जाता है। शिक्षा का उद्देश्य यहीं विफल हो जाता है।
कुछ विषयों में तो असीमित पाठ्यक्रम की पुन:विवेचना एवं संशोधन किया जाना आवश्यक है। अनुपयोगी एवं नीरस सामग्री को बिल्कुल हटा देना चाहिए। इसके लिए जरूरी है शिक्षाविदों द्वारा समय-समय पर पाठ्यक्रमों पर विचार-विमर्श करके आवश्यकतानुसार संतुलित, व्यवस्थित एवं छात्रोपयोगी बनाने के लिए आवश्यक संशोधन-परिवर्तन करते रहना।
शिक्षा प्रणाली के माध्यम से पाठ्य-पुस्तकों के पाठों में ऐसी व्यवस्था हो जिससे पाठ को व्याख्यान ‘लैक्चर’ पद्धति द्वारा समझाने की गुंजाइश न रहे, अपितु संक्षिप्त प्रश्नोत्तरी के माध्यम से विषयों को समझाया जाए। सभी विषयों में अरस्तू की इस प्रश्नोत्तर पद्धति’ से ज्ञान देने की संभावना उत्पन्न की जा सकती है. इससे छात्रों में विषय को समझने में प्रश्नोत्तर पद्धति’ का विकास होगा और पाठ को समझने में सरलता होगी।
पाठों की भाषा क्लिष्टता की ओर शिक्षाविदों का ध्यान अवश्य जाना चाहिए। भाषा जितनी सरल, व्यवस्थित. सगठित एवं देशकाल से संबंधित होगी, छात्रों के लिए उतनी ही सग्राहय होगी। देशी-विदेशी रचनाओं की अनूदित भाषा की क्लिष्टता की ओर अवश्य ध्यान देना चाहिए। क्लिष्ट भाषा छात्रों में विषय के प्रति अरुचि उत्पन करती है।
पाश्चात्य प्रभावित शिक्षा प्रणाली ने भारतीय संस्कृति पर कुठाराघात किया है। नैतिकता एवं मानव मूल्यों को ताक पर रख केवल निजी स्वार्थ, बाह्याडंबर में आस्था, संकुचित मानसिकता आदि दुर्गुणों का विकास हुआ है। पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों का होना आवश्यक है जिससे छात्रों में मानव मूल्यों का विकास, परस्पर सहयोग की भावना, स्व-संस्कृति पर गर्व, जन-कल्याण एवं देशहित की भावना सर्वोपरि रहे।
कक्षा के नीरस वातावरण में नित्य ज्ञानदान की अपेक्षा आधुनिक तकनीक एवं आधुनिक संचार माध्यमों से शिक्षा देना नितांत हितकर रहेगा। समय-समय पर बालोपयोगी चलचित्र दिखाकर, पाठ से संबंधित पर्यटन करा कर, किसी प्रसिद्ध शिक्षाप्रद कथा का नाट्य रूपांतरण करा कर, नृत्य नाटिका कराकर तथा छात्रों द्वारा मंचन कराना जहाँ पाठ के विषय को मनोमस्तिष्क में बैठाने में, समझाने में सहायक हैं वहीं मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी हैं। पाठ्यपुस्तकों में ऐसे पाठों का समावेश होना आवश्यक है। दूरदर्शन, स्लाइड तथा कंप्यूटर जैसे अत्याधुनिक संचार माध्यमों द्वारा शिक्षा देना उत्तम एवं सरल है।
शिक्षा का उद्देश्य भी तभी पूर्ण होगा जब छात्रों को पुस्तकीय ज्ञान के साथ-साथ व्यावहारिक ज्ञान भी प्रदान किया जाए। विद्यालयों में विद्यार्थियों को दुर्घटना होने, अग्निकांड होने, डूबने, अपहरण, शारीरिक एवं मानसिक शोषण, यौन शोषण, भूकंप, करंट लगने, श्वास अवरुद्ध होने जैसे आपातकाल से निपटने की कला सिखाई जानी चाहिए। पाठ्यक्रम के अंतर्गत इस प्रकार का व्यावहारिक प्रशिक्षण आवश्यक कर देना चाहिए।
विद्यालय में बाल संसद का आयोजन करके कतिपय बाल समस्याओं पर पक्ष-विपक्ष में चर्चा करवाई जाए, साप्ताहिक बाल सभा का आयोजन कर बाल प्रतिभाओं की खोज की जानी चाहिए। बाल लेखकों एवं कवियों की प्रतिभाओं की खोज के लिए समय-समय पर ऐसी प्रतियोगिताएं आयोजित की जानी चाहिए जो विद्यालय से बढ़कर अंतर्विदयालय तक कराए जाने की संभावना जगाए। कक्षा में कुरीतियों, अंधविश्वासों से संबंधित अथवा छात्रों की रुचि के अनुसार विषय पर स्वतंत्र विचार प्रकट करने संबंधी कार्यक्रम का आयोजन किया जाना चाहिए। इससे छात्रों में कल्पना शक्ति एवं स्वतंत्र विचार प्रकट करने की प्रवृत्ति का विकास होगा।
पाठ्यक्रम निर्धारित करने वाले अधिकारियों एवं शिक्षाशास्त्रियों को शिक्षा प्रणाली निर्धारित करते समय इस बात पर बड़ी सतर्कता बरतनी होगी कि जिन हाथों में वे छात्रों का भविष्य सौंप कर रहे हैं, क्या वे इसके योग्य हैं ? केवल ‘अध्यापन प्रशिक्षण प्रमाण पत्र’ शिक्षा दान जैसे पवित्र कार्य का मापदंड नहीं माना जाना चाहिए। अपितु उच्चकोटि का चरित्र, सर्वोत्तम आचरण, निष्पक्षता, वाक्कला में निपुणता, असीम धैर्य, सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार, क्षमाशीलता, संयत, शिष्ट एवं प्रभावशाली वाणी, दृढ़ निश्चय, उदार हृदय, सहिष्णुता आदि महान गुण भी मापदंड का दूसरा पक्ष होना चाहिए। ऐसे उत्तरदायित्वपूर्ण, सुदृढ़ एवं सुरक्षित हाथों में बच्चों का भविष्य निश्चित हो सुपुर्द किया जा सकता है।
शिक्षा प्रणाली में छात्रों की शिक्षा के साथ-साथ ऐसा प्रावधान भी होना चाहिए जिसके अंतर्गत शिक्षकों के लिए वर्तमान अध्यापन तकनीक से संबंधित कार्यशाला एवं सेमिनार आदि में भाग लेना आवश्यक कर दिया जाना चाहिए, जिससे छात्रों को वर्तमान संदर्भ में शिक्षा प्रदान करना सरल हो।
उपर्युक्त सुझाव तभी सहायक सिद्ध हो सकते हैं जब शिक्षा प्रणाली का प्रारूप तैयार करने वाले, लागू करने वाले शिक्षाशास्त्री तथा कर्णधार कालानुसार शिक्षा प्रणाली का संवर्धन एवं परिवर्तन करते रहें, कड़ाई से लागू करें और विद्यालयों पर इस संबंध में कड़ी दृष्टि रखें तभी शिक्षा का मूल उद्देश्य पूर्ण होगा।