जन्म के साथ ही मनुष्य के संबंधों का सिलसिला प्रारंभ हो जाता है। विभिन्न संबंधों का निर्वाह करता हुआ मनुष्य आजीवन सुख-दुख का भोग करता चलता है। कभी आत्मज बनकर तो कभी मातृत्व भाव जगाकर, कभी मातृत्व सुख का अनुभव कराकर तो कभी स्नेहिल संबंध जताकर। जब तक वह जीता है संबंधों की पोटली उसे सुखानंद प्रदान करते हुए गले में शान से लटकी रहती है तो कभी-कभी बोझ बनकर कमर टेढ़ी कर देती है। इन्हीं संबंधों के चलते मनुष्य बचपन से ही मित्रता का संबंध भी निभाता है। सभी संबंधों में मित्रता स्वार्थ से परे, आनंद प्रदाता, सच्चाई आदि गुणों से युक्त संबंध होता है किंतु इसकी परख समय आने पर ही की जा सकती है। बचपन की मित्रता शुद्ध, पवित्र, मधुर अनुरक्तिपूर्ण, मग्न करने वाली, अपार विश्वास से पूर्ण होती है। पल-पल ही मान-मनौवल चलता रहता है। बाल्यावस्था का मित्र मन अनुसार मनभावन होता है, किंतु किशोर अवस्था की मित्रता धीर, गंभीर, दृढ़ एवं शांत होती है। कल्पित आदर्श मित्र सदा कसौटी पर खरे नहीं उतरते, रूप, धन, प्रतिभा आदि देखकर मित्रता करना प्रायः मूर्खता ही सिद्ध होती है। यौवनावस्था में मित्रता का चयन अत्यंत जटिल एवं सतर्कतापूर्ण कार्य होता है क्योंकि इस आयु में की गई मित्रता आजीवन रहने वाला संबंध बन जाता है। धन-संपत्ति आने पर, मान-सम्मान प्राप्त होने पर, उन्नति-विकास पथ पर अग्रसर होने जैसे आनंददायक काल में तो अंजान भी अपने बन जाते हैं, पर इनके न रहने पर भी जो हमारा साथ निभाता, साहस बढ़ाता, ढांढस बँधाता है-वही हमारा सच्चा मित्र होता है। मित्रता करने वालों को चेतावनी स्वरूप रहीम दास जी ने सही कहा है-
‘कहि रहीम संपति सगे, बनत बहुत बहुरीत।
बिपति कसौटी जे कसे, ते ही साँचे मीत ॥’
मित्र आड़े समय का सच्चा साथी हो, पथ प्रदर्शक हो, हताशा के क्षणों में भ्रातृत्व से पूर्ण हो, निर्णय काल में वह अग्रज, जीवन पथ पर ले जाने वाले सच्चे गुरु के समान हो।
सच्चा मित्र वही है जो मित्र के लाभ-हानि को अपनी लाभ-हानि माने। उसे प्रतिष्ठित, मृदुल व्यवहार, शिष्ट, सच्चरित्र, उदार हृदय, पुरुषार्थी एवं सत्यनिष्ठ होना चाहिए। जीवन मूल्यों के प्रति उसके मन में श्रद्धा होनी चाहिए। एक सच्चा मित्र ही जीवन को उत्तम और आनंदमय बना सकता है, औषधि के समान वह अपने मित्र के सभी दुर्गुण दूर कर देता है। सदा सैरसपाटे पर जाने वाले, क्षणिक सुखों के पीछे भागने वाले, आमोद-प्रमोद में डूबे रहने वाले मित्र क्षय रोग के समान हैं जो भीतर-ही-भीतर चरित्र को खोखला कर देते हैं। बुराई अटलभाव से मनो-मस्तिष्क पर जड़ जमा लेती है और एक असहनीय भारी बोझ के समान मनुष्य को गर्त की अतल गहराइयों में डुबो देती है। कुप्रवृत्ति वाले मित्रों से सदा बचकर रहना चाहिए। मित्र को एक निंदक के समान होना चाहिए, जो समय-समय पर हमारे दुर्गुणों को हमसे दूर करता रहे। निंदक रूप में मित्र के लिए कहा गया है-
‘निंदक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय॥’
वह मनुष्य भाग्यशाली है जिसे ऐसा मित्र मिला हो। ऐसा मित्र पाने के बाद तो ऐसा लगेगा मानो सारा संसार पा लिया हो। सच्चा मित्र यदि बार-बार रूठे तो उसे बार-बार मनाने से पीछे नहीं हटना चाहिए। उसकी रक्षा उसी भाँति करनी चाहिए जिस भाँति हम अपने खजानों की करते हैं क्योंकि सच्चा मित्र जीवन में सुअवसर की तरह एक बार ही मिलता है। ऐसे सच्चे मित्र के लिए यही कहा जा सकता है-
‘पुतली बना आँखों में भर लूँ
मोती बना मुंदरी में जड़ लूँ
सुच्चा मीत मिले जो मुझको
जन्म-जन्म की इच्छा तज दूं।’