रागों की प्रकृति,रस,भाव और प्रभावक आधार पर विद्वजनों ने उनको चित्रित करने का प्रयास किया है. इससे जिज्ञासुओं को रागों से सम्बंधित जनकारी प्राप्त होती है.मतंग ने सर्वप्रथम ‘ब्रहद्देशि’ ग्रन्थ में रागों के चित्र संकलित किए.अन्य संगीतज्ञों ने भी अपनी अपनी कल्पनाओं को आधार बनाकर रागों को रूप और रंगों में चित्रित करने का प्रयास किया जो अत्यंत प्रभावी हैं. विद्वजनों की कल्पनाएं कोरी नहीं थी.राग-साधना के दीर्घानुभवों के आधार पर ही राग-चित्रण किया गया है।
स्वरों के प्रभावानुसार राग जौनपुरी कोमल एवम् करुणा पूर्ण है. अड़ाना राग उद्दाम,तरल,राग आसावरी कमनीय,राग तोड़ी प्रगल्भा नायिका की वेदना युक्त,राग मरवा अपनी पीड़ा छुपाने वाला नायक,राग मालकौंस शांत,गम्भीर और सौम्य,राग हिंडोल आवेश युक्त है तो राग खमाज संयोग एवम् वियोग श्रंगार से परिपूर्ण है,यानि मुग्धा और विरहणी नायिका की मनोदशा को प्रकट करता है. उसे इन्हीं रूपों में चित्रित किया गया है।
‘राग विवेक’, ‘संगीत दर्पण’ और भरत रचित ‘नाट्य शास्त्र’ आदि ग्रन्थों में भी रागों के ऐसे ही चित्र अंकित हैं.क्योंकि रागों के प्रस्तुतिकरण में कल्पना या ख़याल अति महत्वपूर्ण होता है,इसलिए उनके चित्रण में भी कल्पना या ख़याल द्वारा ही रूप -रंग भरे गए हैं.गुणीजनों ने अपने जीवन भर की साधना और अंनुभूतियों के निचोड़ को ही राग-रागनियों के चित्रण के रूप में प्रस्तुत किया है।
प्रत्येक कलाकार अपनी कल्पना को अपने प्रस्तुतिकरण में मुखर करने का प्रयास करता है. यही कारण है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत कभी पुराना या अरुचिकर नहीं लगता.हर कलाकार की भिन्न कल्पना,विचार,रियाज़ और अनुभव उसकी कला को दूसरे से अलग और नया बनाए रखती है।
इससे सिद्ध होता है कि राग-रागनियों का मनोविज्ञान ,रस एवम् भाव पक्ष उनके प्रभाव को बढ़ाता है. इनसे सम्बन्धित परिणाम भी अत्यंत सकारात्मक होते हैं. भारतीय संगीत की इन्ही विलक्षणता के कारण साधक अपना सम्पूर्ण जीवन संगीत-साधना में लगा देता है।
जहां पाश्चात्य संगीत का शोरगुल और कर्कशता न और शरीर पर नकारात्मक प्रभाव डालता है, वहीँ भारतीय संगीत अपनी मधुरता,कोमलता और आध्यात्मिकता के कारण तन-मन-आत्मा पर अमिट प्रभाव डालता है. यह शरीर और मन के रोगों को दूर करता है.नई ऊर्जा और उत्साह से भर देता है.निराश को आशा में और हार को जीत में बदल देता है. विभिन्न देशों में तन्नौर मन के रूहों के उपचार हेतु भारतीय संगीत का प्रयोग सफलता पूर्वक किया जा रहा है.संगीत चिकित्सा या music therapy अब नई बात नही है. इसकी सफलता इसे दिनों-दिन प्रसिद्धि दिला रही है।
संगीत साधना में जिस प्रणवाक्षर या ॐ द्वारा नाद साधना की जाती है वः पूर्णतः बैज्ञानिकता पर आधारित है.इस नाद का ध्यान और इससे सम्बद्धता बनाकर मनुष्य तो अनेक प्रकार के हित साध सकता है. इसकी स्वर-लहरियों के द्वारा पशु-पक्षियों और वनस्पतियों को भी लाभ पहुंच सकता है।
राग और रागनियों के अंतर को भी साधक की कल्पना ही साकार करती है. जैसे भैरव राग है तो भैरवी रागिनी है.भैरव के अतिरिक्त अन्य हिंडोल,मेघ,दीपक,और श्री राग प्रमुख हैं जिन्हें शिव ने अपने पञ्च-मुख से उतपन्न किया,जबकि पार्वती ने छठे राग कौशिक को उतपन्न किया. अन्य 36 प्रमुख रागनियों में देशी,रामकली,सोहनी,कुकुभ,आसावरी, धनाश्री,गांधारी, तोड़ी,गौरी आदि हैं।
इस प्रकार भारतीय शास्त्रीय संगीत जो कि वैज्ञानिक आधार पर निर्मित हुआ है और जिसकी आत्मा में आध्यात्म बसा हुआ है,कल्पना यानि गहन विचार की कसौटी पर खरा उतर कर अद्भुत रूप से सबका हितकारी है. मैंने भी जीवन भर संगीत का अध्ययन,मनन,प्रयोग और अनुभव क्र यही प्रमाण पाया है कि जहां कल्पना संगीत को साकार करती है,वहीँ संगीत हमारी कल्पना को सत्य,शिव और सुंदर बनाकर हमारे जीवन को सार्थकता प्रदान करता है।
लेखिका – डॉ. जया नरगिस